अटलजी की राजनीति में मनभेद और निजी आलोचना के लिए जगह नहीं थी

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के कार्यकाल तक में एक मजबूत विपक्षी राजनेता के तौर पर दिखे। विपक्ष में रहते हुए उन्होंने सरकार की कमियों की जहां डटकर आलोचना की, वहीं सरकार की उपलब्धियों की भी तारीफ करने में कभी पीछे नहीं रहे। शायद इसी वजह से उन्हें राजनीति का ह्यअजातशत्रुत्व कहा जाता रहा। जवाहर लाल नेहरू ने उनकी तार- फि की तो इंदिरा ने भी उन्हें बराबर सम्मान दिया। कहा जाता है कि राजीव गांधी ने तो उन्हें इलाज के लिए विदेश तक भेजा था। विचारधारा से असहमति के बावजूद विरोधी नेताओं के प्रति भी सम्मान भाव रखते थे। यह उनके व्यक्तित्व का विलक्ष्ण भाव था कि व्यक्तिगत स्तर पर वे किसी के प्रति रागद्वेष नहीं रखते थे। अटलजी लोकतंत्र की स्वस्थ परम्पराओं का निर्वहन करते थे। लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण और राजनारायण तक अटल की हमेशा तारीफ करते रहे थे।


अटलजी की राजनीति वैचारिक विरोध के बाद भी बातचीत का सिलसिला नहीं तोड़ती थी। जो संसद और सड़क की तीखी नोंकझोंक में भी परस्पर वैमनस्यता को जगह नहीं देती थीजो राजनीति में मतभेदों को मनभेद में नहीं बदलती थीजहां मिलकर एक भारत के निर्माण का सपना था जहां रास्ते तो अलग थे पर लक्ष्य एक था। आज युग बदल गया है। जीत ही सर्वोपरि है। विपक्षी को खत्म करना ही सबसे बड़ा नियम है और इस जंग में सब जायज है। नैतिक अनैतिक कुछ भी नह- हैं। लेकिन अटलजी की राजनीति इस मनोदशा, मनोभाव और विचार से कोसों दूर थी।


वाजपेयी एक व्यक्ति के तौर पर मुलायम थे। उनकी मुलायमियत उनके अंदर के हिंदुत्व के लिए कवच थी। जिसमें विचा- रों के अवगुण छिप जाते थे, या वो उनको छिपा लेते थे। इस वजह से लोगों में गलतफहमी भी पैदा हो जाती थी कि क- हीं वो सेकुलर तो नहीं हैं ? कहीं वो आ- रएसएस में होते हुए आरएसएस से अलग तो नहीं है ? वो हैं क्या ? ये सवाल उनके जीवन के अंत तक बना रहा। कभी कभी उनके अपने ही साथी उन पर शक करने लगते थे। ये आदमी विचारधारा से भटक तो नहीं गया है ? कहीं ये शत्रु पक्ष से मिल तो नहीं गया है ? और तब अपने ही लोग उन पर तीखे हमले करने लगते। एक बार जब उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बात सही नहीं लगी और उन्हें, सदन में बोलने का मौका मिला तब उन्होंने अपनी नाराजगी को वहां मौजूद सभी नेताओं के बीच में रखाअटल ने पंडित नेहरू से यहां तक कहा था कि उनके अंदर चर्चिल भी है और चैंबरलिन भी है। लेकिन नेहरू इस पर नाराज नहीं हुए। उसी दिन शाम को किसी बैंक्वट में  दोनों की फिर मुलाकात हुई तो नेहरू ने अटल की तारीफ की और कहा कि आज का भाषण बड़ा जबरदस्त रहा। उनका कहना था कि वह राजनीति का एक ऐसा दौर था जहां सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे और नेताओं की बातों को गंभीरता से लेते थे, लेकिन आज यदि ऐसी आलोचना करनी पड़ जाए तो सदन में कुछ एक से तो दुश्मनी होनी तय है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मशहूर कविताओं में से एक कविता की चुनिंदा लाइन ये भी हैं कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई बड़ा नहीं होता... ये शब्दे उनके लिए सिर्फ शब्द ही नहीं बल्कि उनकी जिंदगी की एस मिसाल भी है। इस बात की मिसाल ये है कि 70 के दशक के अंत में जब साउथ ब्लॉक से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का चित्र गायब हो गया लेकिन बाद में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हस्तक्षेप से इसे फिर से लगाया गया।


वाजपेयी ने इस बात का जिक्र संसद में अपने एक बयान के दौरान किया था और दूसरों द्वारा की जाने वाली आलोचना को स्वीकार करने की उनकी क्षमता की स- राहना भी की थी। उन्होंने अपने बयान में कहा था, ह्यह्यकांग्रेस के मित्र हो सकता है इस पर विश्वास न करें लेकिन नेहरू का एक चित्र साउथ ब्लॉक में लटका होगा। मैं जब भी वहां से जाउंगा उसे देखूगाह्र वाजपेयी ने यह भी कहा कि नेहरूजी के साथ संसद में बहस होती रहती थी। उन्होंने याद करते हुए कहा, ह्यह्यउस समय मैं नया था और सदन में पीछे बैठता था।" कई बार बोलने का मौका हासिल करने के लिये मुझे बहिर्गमन भी करना पड़ाउन्होंने कहा, ह्यह्यतब मैंने अपने लिये एक जगह बना ली और आगे आ गया और जब मैं विदेश मंत्री बना, मैंने देखा कि वह चित्र गैलरी से गायब हैउन्होंने कहा, मैंने तब पूछा कि वह (चित्र) कहां गया? मुझे कोई जवाब नहीं मिला। उस चित्र को फिर से वहां लगा दिया गया। उनके इस बयान का सदन में मौजूद लोगों ने मेजें थपथपाकर स्वागत किया था। यह चित्र वाजपेयी के अधिकारियों ने ये सोचकर हटवा दिया था कि शायद इसे देखकर वाजपेयी खुश नहीं होंगे।


प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद उन पर जो हमले हुए उससे वो बहुत आहत हुए थेमुंबई में पार्टी की एक बैठक में वो बोल भी पड़े थे- अपनों के बाणों ने मारा ह्लिह्ण वो भावुक थे। आंसू भी छलके। पर फिर संभल गए। और आगे चल पड़े। ये थे अटलजीसाफ दिल के। मन में मैल नह- हैं। विरोधियों को भी अपना बनाने की कला।


एक बार जब वो प्रधानमंत्री थे। संसद में बहस के दौरान प्रमोद महाजन ने चंद्रशेखर की किसी बात से चिढ़ कर कह दिया। क्लचंद्रशेखर जी, मेरी भी आपकी चार महीने की सरकार के बारे में राय है। कहिये तो कह दें। इस पर चंद्रशेखर जी तनमना कर रह गए। उन्हें बहुत बुरा लगा। अटल जी बात को भांप गए। वो जब अपने कमरे में गए तो उन्होंने प्रमोद महाजन को बुलाया और उनको झिड़का कि आप चंद्रशेखर जैसे वरिष्ठ सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री पर कैसे फब्ती कस सकते हैं ? चंद्रशेखर जी से बाकायदा माफी मांगने को कहा। चंद्रशेखर उनकी पार्टी में नहीं थे। लेकिन वो ये जानते थे कि संसदीय लोकतंत्र में विरोध के बावजूद परस्पर सम्मान को चोट पहुंचाने वाली बात नहीं होनी चाहिएऔर वहीं वर्तमान की राजनीति किस तरह एक दूसरे का मजाक उड़ाती है और किसी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी करने से नहीं चूकती, उन सब के लिये ये एक बानगी है। एक सबक हैपर आज वाजपेयी जी इस संसद में नहीं हैं। और न ही संसदीय गरिमा का ख्याल पक्ष या विपक्ष, किसी को है। सब एक जैसे हैं। अपनी सख्त छवि के लिए मशहूर इंदिरा गांधी से शायद ही कोई नेता उलझना चाहता था, लेकिन अटल जी अक्सर उन्हें तमाम मुद्दों पर संसद में घेर लेते और सवालों का जवाब देने पर मजबूर कर देते। एक बार तो इंदिरा गांधी ने अटल जी की आलोचना करते हुए कहा था कि, ह्यवह बहुत हाथ हिलाहिलाकर बात करते हैं।